लाल किताब के रचयिता पंडित रुप चंद जोशी जी


लाल किताब ज्योतिष के रचयिता पंडित रुप चंद जोशी जी का जन्म 18 जनवरी, 1898 को जालंधर (पंजाब) के फरवाल गांव में हुआ। इन के पिता का नाम था पं० ज्योति राम जोशी जो पंजाब रैवेन्यु विभाग के लिए काम करते थे व खेती की ज़मीन के भी मालिक थे। बचपन में ही पं० रुप चंद जोशी जी की माता का देहांत हो गया। घर में सब से बड़ा भाई होने की वजह से परिवार को संभालने का काम उन पर आ पड़ा। पं० रुप चंद जी का बचपन काफ़ी कठिनाई में गुज़रा। उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। उन की उर्दू की लिखाई बहुत ही सुन्दर थी और उर्दू भाषा पर भी अच्छा अधिकार था। शिक्षा उर्दू, फ़ारसी व अंग्रेज़ी में हुई।

उस समय के पंजाब में हिंदी भाषा ज़्यादातर हिंदू औरतें ही पढ़ा करती थीं, पुरुष प्रायः उर्दू व अंगे्रज़ी ज़्यादा, और हिन्दी कम पढ़ते थे, इस की वजह थी सरकारी काम काज का उर्दू व अंगेज़ी में होना। उर्दू हर कोई पढ़ता लिखता था, यह आम आदमी की भाषा थी। यही वजह है कि लाल किताब उर्दू में लिखी गई ताकि आम आदमी इसे पढ़ सकें। क्योंकि ज़्यादा पढ़े लिखे लोग फ़ारसी भी जानते थे, इस लिए कहीं कहीं फ़ारसी के शब्द भी लाल किताब में इस्तेमात किए गए।

पं० रुप चन्द जी ने चौथी व आठवीं कक्षा में वज़ीफ़े की पीरक्षाएं पास की जो उन दिनों में बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी पं० जी ने अच्छे अंकों से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इस के बाद वे कुछ दिन एक स्कूल में भी पढ़ाते रहे व बाद में अंग्रेज़ी भाषा का अच्छा ज्ञान होने की वजह से उन्हें भारत की डिफ़ैंस एकाऊंट्स सर्विस में सरकारी नौकरी मिल गई जिस के कारण वे लाहौर, धर्मशाला, बम्बई, मद्रास,अंबाला छावनी, शिमला व अन्य कई स्थानों में रहे व गजे़टिड पदवी तक पहुंच कर रिटायर हुए।

पं० जी की बचपन से ही प्रखर बुद्धि थी, इस के अतिरिक्त उन में कुछ ऐसी विशेषता थी जो कि बचपन में वे मवेशियों के माथे को देख कर उन के मालिकों के बारे में कई बातें बतला देते थे। पर इस अन्तर्ज्ञान को उन्होंने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। मैट्रिक परीक्षा पास कर लेने के बाद उन्हें ख़ुद—ब—ख़ुद ही हस्त रेखा का ज्ञान हो गया। किसी की हथेली को देखकर वे पिछली बातें तो बहुत सही कह देते थे पर भविष्य के बारे में उन्हें कोई ख़ास सफ़लता नही मिल पा रही थी। उन्होंने सोचा कि इस विषय पर कुछ पढ़ना चाहिये। क्योंकि वे इस की तरह में जाना चाहते थे इस लिए पहले खगोल (एस्ट्रानोमी) पढ़ने का इरादा किया व इस विषय पर कुछ किताबें पढ़नी शुरु की। अब तक पं० रूप चंद जी सरकारी नौकरी में आ चुके थे व उन के दो बच्चे भी हो चुके थे। उन की तब्दीली उन दिनों धर्मशाला, ज़िला-कांगड़ा में हुई थी। 

''क्या हुआ था, क्या भी होगा, शौक दिल में आ गया 
इल्म ज्योतिष हस्त रेखा, हाल सब फ़रमा गया''

पं० जी अपने गांव फरवाल में अपनी पहली सालाना छुट्टियां बिताने के लिए गए थे। पहली ही रात उन्हें स्वप्न में एक अदृश्य शक्ति यानि ग़ैबी ताक़त जिस का चेहरा पं० जी कभी नहीं देख पाए, प्रकट हुई। यह था तो कोई पुरुष । (पंडित जी जब भी कोई कुंडली देखते, वे लाल किताब में से फलादेश पढ़ कर बोलते थे चाहे वो एक ही पंक्ति हो। आम तौर पर वे ग्रह के शुरु में लिखी हुई पंक्ति के अंश पढ़ते व उसी के अर्थ की ही व्याख्या करते व अक्सर कहते कि वो कह गया है या वो लिखवा गया है। इस ग़ैबी ताक़त ने उन्हें बताया कि उन्हें एक नए तरीके का ज्योतिष शुरु करने के लिए चुना गया है व वे इस ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो पाएंगे। रात भर स्वप्न में उन की शिक्षा चलती व सुबह पं० जी मन्त्र मुग्ध या अर्थचेतन अवस्था में नोटबुक में सभी कुछ लिखते जैसे कि कोई उन्हें हाथ पकड़कर लिखवा रहा हो। उन दिनों उन्हें हुक्का पीने का शौक था। हुक्का पीते जाना व लिखते जाना। (कुछ वर्षों बाद उन्हों ने हुक्का पीना छोड़ दिया।) जहां कहीं कोई बात भूल जाती, तभी उन की पुत्री या पुत्र पंडित सोम दत्त जी बोल कर उन्हें लिखवा देते।

पंडित जी इस अचानक आई हुई तबदीली के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे पर उनके पास इस के इलावा और कोई रास्ता भी नहीं था। जब बच्चों ने भी लाल किताब के पाठ उन्हें बताने शुरु कर दिए तो वे काफ़ी चिन्तित हुए व सोचते रहे कि एक तो इस ताक़त ने मेरा जीना दूभर कर दिया है व अब मेरे बच्चों पर भी काबू पा लिया है। धीरे धीरे पं० जी इसे उस की रज़ा समझ कर इस नए इल्म के प्रवर्तक बन गए।

इस शिक्षा के मिलते ही पंडित जी ने अपना आजीवन यज्ञ शुरु कर दिया। सुबह दफ़्तर जाने से पूर्व एक दो घंटे वे जन्म कुंडलियां देखते व रविवार को तो उन के यहां जैसे मेला ही लग जाता। वो किसी से कोई फ़ीस न लेते और यदि कोई देने की कोशिश भी करता तो उसे दोबारा वहां न आने को कह देते। पंडित रुप चंद जी अपने असूलाें के बहुत पक्के थे। चाहे कोई डिप्टी कमिश्नर हो या चपरासी, सभी को अपनी बारी की इंतज़ार करनी पड़ती थी। पंड़ित जी इस ज्ञान को बांटना भी चाहते थे, इसी लिए उन्हों ने लाल किताब के नाम से पांच किताबें लिखीं। ये किताबें बिना कोई लाभ बनाए, लागत पर बेची गई व पं० जी जिसे इस के योग्य समझते, उसे किताबें मुफ़्त में भी दे देते।

गत वर्षों में पंडित जी के देहावसान (दिसम्बर 24, 1982) के बाद कुछ लोंगो ने यह बात उड़ा दी कि लाल किताब फ़ारस या अरब से आई और उस का पं० जी ने अनुवाद किया। अगर ऐसा है तो कहां हैं वो मूल अरबी/फ़ारसी भाषा की पुस्तकें? उन देशों में किसी न किसी के पास तो वे ज़रुर होंगी। एक प्रतिष्ठित सज्जन, जिन की लाल किताब पर लिखी हुई कई किताबें छपी हैं.....


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