कारण और निवारण (Causes and Prevention)

 

कारण और निवारण

रविशंकर त्रिवेदी...

प्रारम्भ से ही हर जीव सुख व शांति की तलाश में रहा है। परन्तु सुख व शांति ट्टस्थिरता’ में ही निहित है। चाहे निर्माण हो या विघटन, दोनों ही अस्थिरता देते हैं। यह क्रम शुरु से ही चला आ रहा है। अतएव योग का उद्भव हुआ। परन्तु साधारण मनुष्य के लिये सतत् अभ्यास कठिन हो गया। तब विचारकों ने इस अस्थिरता के कारणी को खोजना शुरु किया। पाया कि गुरुत्व शक्ति का बहुत बड़ा योगदान इस स्थिरता को विचलित करने का है। गणनाएं हुई और उनके प्रभावों को अध्ययन में लाया गया। तत्पश्चात् सर्वाधिक रुप से साक्ष्यों को लिपिबद्ध किया गया। इसे हमने ज्योतिष कहा।

पुनः हस्त रेखाओं का अध्ययन, अंकों का प्रभाव आदि अनेकों विधाएं परिलक्षित हुई। शत प्रतिशत गणना व प्रभाव वास्तविक अर्थ में संभव नहीं जान पड़ता। राम व सीता के गुण 36 में 36 मिले थे। परन्तु कितना सुखी उनका जीवन रहा था। यह सब इसलिये गणना करने वाले पर व उसके ज्ञान व अनुभव पर ही आधारित है। यह तो एक विज्ञान है। जितनी गहरी पैठ कर सको। 
अस्थिरता के कारण ही सुख—दुख मिलते हैं। स्थिरता में कोई सुख—दुख नहीं है। इसी अस्थिरता को कम करने हेतु, ध्यान, दान, भक्ति, योग, तप आदि बतलाए गये हैं।
वास्तव में हर कण—जीव एक ऊर्जा है। जो अपने चारों ओर एक घेरा बनाकर क्रिया—प्रतिक्रिया करती रहती है। निर्माण व विघटन करना इसकी नियति बन गई है। अनुभवों में आया कि गुरुत्वाकर्षण के प्रभावों ने जीव में अलग—अलग प्रभावों को उत्पन्न कर दिया। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उक्त ग्रह से क्या सभावित परिणाम होंगे। फिर जप—तप—दान आदि से कैसे इसे सुरक्षित किया जा सकता है। यही ज्योतिष का लक्ष्य है। इसलिये ज्योतिष एक लाइट हाउस की तरह मार्गदर्शक का कार्य करती है। संभावनाओं का संसार है यह। एक विज्ञान है। मानव जीवन का लक्ष्य नहीं। इससे मार्गदर्शन प्राप्त कर हम जीवन को लक्ष्म की ओर मोड़ सकते हैं।

एक कहावत है कि ''नीम हकीम खतरे जान'' यानी अधूरा ज्ञान  घातक हो सकता है। इसलिये आवश्यक है कि ज्योतिष गणनाओं  को जानने से पहले उनके आधार को समझ लेना चाहिये। सुख की तलाश में हमारे ऋषि मुनियों ने जो खोज की उसी के आधार  पर मैं अपने विचार रख रहा हूं। आज वैज्ञानिकों ने द्रव्य की चार अवस्थाएं बतलाई हैं। ठोस, तरल, गैस व प्लाज्मा। पहली तीन अवस्थाओं से हम परिचित है। चौथी अवस्था प्लाज्मा + व - ऊर्जा का बराबर समिश्रण है। हमारे ऋषियों ने उससे आगे की भी खोज कर ली थी। उन्होंने सबका आधार एक निष्क्रिय परन्तु बहुत शक्तिशाली अवस्था बतलाई। यह पूर्ण शांत व स्थिर है और अपने अंदर अपने सिवा कुछ भी नहीं रखती है। ठीक उसी प्रकार जैसे ब्लैक होल में सब कुछ समाप्त हो जाता है। उसके अंदर अत्याधिक शाक्ति है जैसे Potential Energy उसमें किसी भी प्रकार का विचलन अत्याधिक ऊर्जा उत्पन्न कर देता है। जैसे परमाणु विस्फोट। यही विस्फोट सुष्टि का कारण बना। यानी गुरुत्व शक्ति में विचलन एक नया आधार बना। गुरुत्व शक्ति को आध्यात्म में आकर्षण बल (सबसे प्रेम) कहा गया। इसके पश्चात जो ऊर्जा पैदा हुई उसमें + व - ऊर्जा कण बने। क्योंकि यहां विभाजन में उलट फेर का नियम प्रतिपादित हो रहा है। अच्छा है तो बुरा भी है। यदि अच्छा नहीं तो बुरा नहीं। साथ वे चुम्बक के जितने भी टुकड़े कर दिये जाएं तो भी हर भाग + व - ध्रुव रखता है। यही प्लाज्मा है। फिर उसके पश्चात कुछ—कुछ स्थानों पर + व - मिल जाने से शून्य पैदा हो गया। इसने चारों ओर से पहले की अवस्थाओं को ढक लिया। अब इसके अंदर प्रवेश करने के लिये पहले हमें शून्य बनना होगा। (संदर्भ—स्वामी विवेकानन्द). इस प्रकार यह सभी अवस्थाएं क्रमशंः सभी जगह हैं। अनंत रुप से व्याप्त हैं।

अब जो कण (+ व -) बाहर आ गये, आपस में क्रिया करके रचना करते गये। विभिन्न कणों के संयोजन से विभिन्न प्रकार के आचारण होते गये। परन्तु सभी के मूल में पहले बताए गये तत्व मौजूद रहे हैं। पारस्परिक क्रियाओं से एक संसार बना जिसे पार ब्रम्ह मंडल कहा गया। आज वैज्ञानिक इन आचरणों को RNA/DNA की संज्ञा देते हैं। धीरे—धीरे क्रिया प्रतिक्रिया और ऊर्जा कणों के अवशोषण से भौतिक रुप आने लगे। इस भौतिक संसार को ब्रम्हाण्ड मंडल कहा गया। यहां भी वही नियम लागू हैं जो आरम्भ में थे। यानी आकर्षण बल (गुरुत्वबल), क्रिया—प्रतिक्रिया और शांति (सुख)।

इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ऊर्जा कण ऊर्जा संचयन के कारण करोड़ो वर्ष पश्चात, आज इस सृष्टि का एक अंग बन गया। संचयन की इस प्रवृत्ति के कारण व विभिन्न क्रिया—प्रतिक्रिया से विभिन्न आचरण देखने को मिले। क्याें ऐसा होता है कि एक जीव सुखी व सम्पन्न है, जबकि दूसरा वैसा नहीं। आंतरिक क्रियाएं कैसे होती है। कैसे विभिन्न सोच है? मूल तत्व को देखें तो वह स्थिरता धारण किये हुए है। जबकि उसके चारों ओर घेरे ने क्रिया—प्रतिक्रिया कर उसमें हलचल पैदा कर दी। स्थिरता के लिये मूल तत्व ने ऊर्जा प्रस्फुरित की। उससे गति बन गई। इसमें निर्माण व विघटन शुरु हो गया। जब समग्र रुप से यह क्रियांए हुई ता एक व्यवस्थित क्रिया से विकास होता गया। इस प्रकार गुरुत्वशक्ति का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ने लगा। विभिन्न ग्रहों की गुरुत्वशक्ति जीवन को गति देने लगी। स्थिरता की भावना दूर होती चली गई, जो सुख का आधार है।

अब जीवन में दृष्टिगोचर परिवर्तन का कारण समझ में आ गया होगा। चूंकि ऊर्जा के संचयन के कारण ही प्रभाव देखने को मिलते हैं, अतः उन प्रभावों को दूर करने के लिये ऊर्जा का उपयोग ही करना होगा। इसलिये, प्रकाश ऊर्जा (कलर), चुम्बकियी ऊर्जा, रसायन ऊर्जा (दवाईयां) आदि—आदि पद्धतियों की खोज की गई। परन्तु सबसे सटीक ऊर्जा स्वयं के द्वारा उत्पन्न ऊर्जा है। जिसे हम इच्छाशक्ति कहते हैं। यह जप, तप वैराग्य, दान, कर्म आदि से प्रभावशाली की जाती है। इसके लिये योग—यथा राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, सांख्ययोग आदि—आदि विधाएं जांची गई। परन्तु साधारण मनुष्य के लिये समय निकाल पाना और विधि पूर्वक कार्य कर पाना कठिन होता है। अतः उप—उपायों में दान, जप आदि को सम्मलित किया गया। ज्योतिष में इसलिये इन साधारण उपायों को देखने को मिलता है। प्रारब्ध के संस्कार वह ऊर्जा है जो हमने अपने कर्मों के कारण प्राप्त की हैं। यदि किसी समय में, जीव ने किसी को दुख पंहुचा कर लाभ लिया है तो दोनों की भावना से उत्पन्न ऊर्जा एक प्रभाव डाल देती है। जो हमारे स्टोर में संग्रहित हो जाती है। समय आने पर वह प्रभावोत्पादक हो जाती है और हमें सुख व दुःख प्रदान करती है।

जीव के प्रादुर्भाव के समय ग्रहों द्वारा गुरुत्वशक्ति ऊर्जा का सम्मालित स्वरुप ही, उस जीव का आधार बन जाता है। अब यह एक दर्पण का कार्य करता है। विभिन्न परिवर्तन इसी की अपेक्षा में देखे जाते हैं। जब तक इस स्वरुप के अनुकूल ऊर्जा का प्रभाव होता है, तो जीव सुख पाता है, परन्तु जब विपरीत ऊर्जा (गुरुत्व) का प्रभाव आता है। तो जीव विचलन के कारण दुख पाने लगता है।

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